कई सालों से हिंसा से जूझ रहे अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के मक़सद से रूस ने मॉस्को में एक बैठक बुलाई थी जिसमें 11 देशों को आमंत्रित किया गया था.
ख़ास बात यह थी कि इस बहुपक्षीय बैठक में तालिबान के वरिष्ठ प्रतिनिधि भी शामिल हुए.
साल 2001 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता से हटने के बाद ये पहला मौक़ा था जब तालिबान इस तरह की किसी अंतरराष्ट्रीय प्रक्रिया का हिस्सा बना.
भारत ने ग़ैर आधिकारिक तौर पर इस बैठक में हिस्सा लिया. भारत के पूर्व राजदूतों के शिष्टमंडल ने इस बैठक में हिस्सा लिया.
भारत ने स्पष्ट किया था कि वो तालिबान से कोई बात नहीं करेगा और इस बैठक में उसकी मौजूदगी ग़ैर-आधिकारिक तौर पर होगी. बावजूद इसके भारत की ओर से प्रतिनिधि भेजे गए और अब इसकी आलोचना भी हो रही है और इसे तालिबान को लेकर भारत के पुराने रुख़ में बदलाव कहा जा रहा है.
हालांकि भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने मॉस्को बैठक में भारत की मौजूदगी पर कहा था, "ऐसा करना भारत की उस नीति के अनुरूप ही है जिसके तहत वह 'अफ़ग़ानिस्तान के नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान द्वारा' एकता और शांति के लिए होने वाले प्रयासों का समर्थन करता है.
बैठक में क्या था भारत का रुख़?
ख़ास बात ये है कि मॉस्को बैठक रूस की पहल पर हुई और अफ़ग़ानिस्तान ने तो इसमें प्रत्यक्ष तौर पर शिरकत भी नहीं की.
तो क्या जिस बैठक में तालिबान ने शिरक़त की, उसमें भारत के प्रतिनिधियों का जाना दिखाता है कि तालिबान को लेकर भारत का रवैया बदला है?
तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान से जुड़े मामलों की गहरी समझ रखने वाले पाकिस्तान में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई बताते हैं कि भारत ही नहीं, कई देशों का रवैया इस मामले में बदला है.
वो बताते हैं, "पहले भारत का रुख़ ये था कि तालिबान से बात नहीं होनी चाहिए. उनका विचार था कि तालिबान एक तो बातचीत के लिए तैयार नहीं है और दूसरा वह ताक़त और चरमपंथ का इस्तेमाल करता है. पहले भारत अफ़ग़ानिस्तान सरकार के साथ खड़ा था. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान ने भी इस मामले में थोड़ी नरमी दिखाई है."
यूसुफ़ज़ई का कहना है, "भारत की ही तरह अफ़ग़ानिस्तान का आधिकारिक शिष्टमंडल भी इस बैठक में नहीं गया लेकिन अफ़ग़ान सरकार द्वारा बनाई गई हाई पीस काउंसिल के प्रतिनिधि इसमें गए. पीस काउंसिल की स्वतंत्र हैसियत तो है मगर वह अफ़ग़ान सरकार की मर्ज़ी के बिना फ़ैसला नहीं कर सकते. भारत ने भी तक़रीबन वही फ़ैसला किया. उनके अधिकारी भी मॉस्को गए, मगर वे भारत सरकार की नुमाइंदगी नहीं करते."
"मेरे विचार से अमरीका का भी यही स्टैंड रहा. अफ़ग़ानिस्तान को लेकर मॉस्को में पहले जो बैठक हुई थी, अमरीका ने उसका बहिष्कार किया था. इस बार उसके रूस स्थित दूतावास के लोगों ने इसमें शिरकत की और कहा कि हम सिर्फ़ मॉनिटर करने आए हैं. यानी अमरीका, अफ़ग़ानिस्तान और भारत का रुख़ इस मामले पर एक जैसा है."
रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं, "मॉस्को में इन देशों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी रूस की भूमिका और तालिबान की अहमियत को मानने के बराबर है यानी कि इस मामले पर उनसे बात होनी चाहिए. यह एक बड़ी तब्दीली है."
भारत का प्रतिनिधि भेजना ग़लत?
अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू मानते हैं कि भारत की ओर से प्रतिनिधियों का मॉस्को में हुई बैठक में हिस्सा लेना ग़लत नहीं है.
वो बताते हैं, "मेरी समझ से भारत सरकार का निर्णय उचित था क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में भारत के हित जुड़े हुए हैं. अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका अहम है और वहां उसकी साख भी है. ऐसे में अगर अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय पहल हो रही है, तो उसमें भारत की मौजूदगी ज़रूरी है."
तालिबान के प्रतिनिधियों के साथ भारत से गए प्रतिनिधियों का मंच साझा करना क्या दिखाता है? इस सवाल के जवाब काटजू कहते हैं, "मेरा मानना है कि ज़रूरी नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले डिप्लोमैटिक गेम में वही लोग मौजूद हों, जिनका आप समर्थन करते हैं. ऐसी बैठकों में वे लोग, गुट और देश भी शामिल होते है, जिनके विचारों और नीतियों का आप विरोध करते हैं."
"आज तालिबान से बहुत सारे देश बात कर रहे हैं. इसका मतलब यह नहीं कि वे तालिबान को मान्यता दे रहे हैं. लेकिन संपर्क होता है. मेरा मानना है कि भारत का तालिबान से किसी तरह से संपर्क में रहना ग़लत बात नहीं है."
तो क्या भारत नरम पड़ा है?
ये जानते हुए कि तालिबान के प्रतिनिधि भी हिस्सा लेंगे, मॉस्को में हुई बहुपक्षीय बैठक में भारत की ओर से प्रतिनिधिमंडल का जाना क्या यह दिखाता है कि तालिबान को लेकर भारत का रवैया नरम पड़ा है?
इस सवाल पर रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं, "भारत का रवैया नरम पड़ा है और अमरीका का भी. अमरीका की बात करें तो पहले तो वह तालिबान के साथ सीधी बातचीत का हिमायती नहीं था. मगर वह क़तर में तालिबान से वार्ता कर रहा है. दो दौर की बात हो चुकी है, एक और होने वाली है."
"बाक़ी मुल्क़ भी ऐसा ही कर रहे हैं. रूस का पहले तालिबान से संपर्क नहीं था मगर फिर उसी ने उन्हें मॉस्को बुलाया. तालिबान तो इंडोनेशिया, उज़्बेकिस्तान, चीन, ईरान और पाकिस्तान भी आता-जाता रहता है."
"तालिबान को लेकर कई मुल्क़ों के रवैये में तब्दीली आई है और उसकी हैसियत को माना जा रहा है. मेरे विचार से अफ़ग़ानिस्तान की सरकार भी इस बात का विरोध नहीं करेगी. भारत ने एक तरह से हक़ीक़त को मान लिया है कि तालिबान से बातचीत होनी चाहिए."
क्या बैठक में हिस्सा लेना भारत की ग़लती थी?
विवेक काटजू कहते हैं कि तालिबान वाली बैठक में हिस्सा लेने का मतलब उसे किसी तरह की मान्यता देना नहीं है.
वो कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली करनी है तो इसमें कुछ मुख्य पक्ष हैं. एक अफ़ग़ानिस्तान, दूसरा तालिबान जिसके चरमपंथी तरीकों की भारत समेत पूरी दुनिया वाजिब निंदा करती है. फिर अमरीका की भूमिका अहम है. पाकिस्तान को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि उसका समर्थन होता तो तालिबान आज इतना मज़बूत न होता. पाकिस्तान की नीतियों में बदलाव नहीं आएगा तो अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता नहीं आ सकती. इन चार पक्षों को अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता और शांति लाने के लिए कड़े क़दम उठाने होंगे."
काटजू बताते हैं कि भारत जैसे क्षेत्रीय देशों की भूमिका भी अहम है क्योंकि वे सपोर्टिंग रोल प्ले कर सकते हैं. वो कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भारत की भूमिका हमेशा सकारात्मक रही है. मॉस्को में हुई बैठक का मक़सद भी यही था कि क्षेत्रीय देश यही सपोर्टिंग भूमिका निभाएं. उनकी भागीदारी बताए कि वे चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता और अमन हो ताकि पूरे क्षेत्र को फ़ायदा हो."
काटजू कहते हैं कि तालिबान को लेकर परिस्थितियां बदली हैं, ऐसे में सभी को मिलकर अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए.
उन्होंने कहा, "तालिबान को कभी भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने मान्यता नहीं दी. तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब. उस समय रूस, ईरान और भारत समेत कई देश तालिबान के ख़िलाफ थे. मगर आज परिस्थितियां बदलती हैं. इसीलिए आज शांति बहाली के लिए तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार के बीच बातचीत हो रही है. इसलिए सभी का उद्देश्य यही होना चाहिए कि तालिबान पर ज़ोर डालें कि हिंसा का रास्ता छोड़कर बातचीत करे."
क्या यह तालिबान की जीत है?
भारत और अमरीका जैसे देश पहले तालिबान से बात करने के पक्ष में नहीं थे. ऐसे में मॉस्को में हुई बैठक को सांकेतिक रूप से ही सही, क्या तालिबान के लिए जीत माना जाए?
इस पर रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं, "अगर अफ़ग़ानिस्तान में हो रहे ख़ून-ख़राबे और 40 साल से चली आ रही जंग को हल करने में क़ामयाबी मिलती है तो यह सभी की जीत है, किसी की हार नहीं. लेकिन राजनीतिक रूप से देखें और दुनिया के हालात पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि अलग-अलग कैंप और ग्रुप बने हुए हैं. इससे तालिबान बहुत ख़ुश है."
"तालिबान समझता है कि ये उसकी जीत है. क्योंकि पहले तो उनके बारे में कहा जाता था कि ये आतंकवादी हैं, ड्रग्स के तस्कर हैं. लेकिन अब उन्हें मिलने के लिए बुलाया जा रहा है. एक समय तो अमरीका का कहना था कि तालिबान को ख़त्म करके रहेंगे, तालिबान इतिहास बन चुका है, इसकी वापसी नहीं होगी. ऐसे में यह अमरीका के लिए काफ़ी शर्मिंदगी की बात है कि उसे बात करनी पड़ रही है."
अफ़ग़ानिस्तान में दशकों से चली आ रही उठापटक और तालिबान के उदय से लेकर उसके पतन तक को क़रीब से देख चुके वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई का कहना है कि सभी देशों के समझना चाहिए कि असल मसला अफ़ग़ानिस्तान में है.
अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान को अगर लगता है कि मसले का हल बातचीत से होगा तो बाकी देशों को इसी नीति का साथ देना चाहिए. उन्हें ऐसे हालात पैदा करने चाहिए कि बातचीत सफल हो जाए और इस रास्ते से समस्या हल हो जाए.